कब्र.... कब्र के कान नहीं होते? लेकिन मिट्टी ने मिट्टी की भाषा सुन ली। क्यों री तू कैसे मरी 'देख सब कैसे रो रहे है। तेरे मरने पर भी चंदन की लकड़ी का इंतज़ाम किया है इन्होंने' बड़ी भागो वाली है, कितना बड़ा परिवार है तेरा। सब नाटक कर रहे है जिज्जी, जब मैं जिंदा थी एक-एक रुपए के लिए मोहताज थी। कभी खसम के आगे तो कभी बेटों के आगे हाथ फैलती , बदले में गालियां और ताने सुनती थी। सारा दिन डंगरों के जैसे घर मे जूती रहती थी। फिर घर में बहुएं आ गई, उनके आते ही मेरा वो छोटा सा कमरा भी मुझसे छिन गया। मेरी खाट आंगन के कोने में लगा दी गई। वहाँ दो घड़ी भी चैन न मिलता था। कभी बारिश तो कभी सर्दी तो कभी जेठ की लू सब सहती थी। और बदले में सुनती थी। 'कब तक ये बुढ़िया यूं ही सेवा करवाती रहेगी। कब पिछा छूटेगा इससे पता नहीं' ये जल्दी से निपट जाए तो हम गंगा नहा ले।